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ISSN 2349-672X

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के फ्रेमवर्क में उपभोक्ता अधिकार का फैलता दायरा

Volume: 3 Issue: 2021-01-01

 

डॉ. धनंजय झा

एम.ए. पीएच.डी., राजनीति विज्ञान, बी.आर.ए. बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर।

बाजार नियंत्रित समाजों की मूलभूत प्रकृति यह है कि यहाँ उत्पादक एवं उपभोक्ता पूरी अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए दो पहियों की तरह काम करते हैं मगर व्यवहारतः उपभोक्ता उत्पादक की तुलना में अधिक आधार प्रदान करता है। यह स्थिति तब और स्पष्ट हुई जब विष्व के विभिन्न अर्थव्यस्थाओं में उदारीकरण तथा वैश्वीकरण की संकल्पना को अपनाया गया तथा बाजार के खिलाड़ियों के बीच प्रतिस्पर्धा की शुरुआत हुई।1 इस परिस्थिति में कम से कम सिद्धान्ततः उपभोक्ताओं को अधिक से अधिक सुरक्षा की आवश्यकता वस्तुओं के उत्पादकों एवं खुदरा विक्रेताओं के साथ संबंध बढ़ने के कारण हुई ताकि उनके सहूलियत के लिए अधिक से अधिक पसंद उपलब्ध हो। हाल के वर्षों में सिद्धान्तहीन एवं अधिक मुनाफा कमाने की सोच वाले उत्पादक एवं व्यापारी द्वारा उपभोक्ताओं की भलाई के विपरीत काम किया गया है और वस्तुओं तथा सेवाओं के क्रयों पर उपभोक्ताओं को असहाय एवं उपेक्षा का षिकार बनाया है।2 जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उपभोक्ता प्रायः व्यापारियों द्वारा बड़े पैमाने पर फैलाए झूठे वादे के झांसे में आ जाते हैं। इस दिशा में उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए और उनके दावे के निराकरण हेतु तकनीक के विकास के लिए देश में उपभोक्ता संरक्षण कानून को 1986 में पारित किया गया था जिसका स्थान अब उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 ने ले लिया है।

प्रस्तुत आलेख में उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा से संबंधित विभिन्न मुद्दों का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया है। इसके अलावा उपभोक्ताओं के अधिकार एवं दायित्व का भी विश्लेषण किया गया है। साथ ही तथा देश में शिकायत निवारण तंत्र की स्थिति पर विशेष जोर देते हुए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 तथा 2019 के कार्यों की विश्लेषणात्मक व्याख्या पर भी बल दिया गया है। उपभोक्ताओं के अधिकारों एवं दायित्वों पर विस्तृत चर्चा करने से पहले यह जानना आवश्यक होगा कि उपभोक्ता कौन है और वस्तु एवं सेवा के क्या अर्थ हैं जिसे उपभोक्ता खरीदते हैं और उपयोग करते हैं।

उपभोक्ता की परिभाषा

सामान्य अर्थों में, उपभोक्ता वह व्यक्ति है, जो उपयोग करने हेतु निश्चित वस्तुओं या सेवाओं को कुछ भुगतान कर खरीदते हैं। दूसरे शब्दों में, तकनीकी परिभाषा के अनुसार, उपभोक्ता में तीन तत्वों का समावेष होना आवश्यक है, जिसमें से एक की भी अनुपस्थिति व्यक्ति को उपभोक्ता के वर्ग से अलग कर सकती है। पहला, एक उपभोक्ता को एक खरीददार होना आवष्यक है, दूसरे माध्यम से वस्तु या सेवा प्राप्त करना उसे उपभोक्ता वर्ग में शामिल नहीं करता जैसे कि, वस्तु विनिमय प्रणाली के तहत वस्तु प्राप्त करना उसे उपभोक्ता वर्ग में शामिल नहीं करता जैसे कि, वस्तु विनिमय प्रणाली के तहत वस्तु प्राप्त करने वाला व्यक्ति उपभोक्ता नहीं होता। दूसरा, वस्तु या सेवा की प्राप्ति का निर्धारण तब माना जायेगा जब उपभोक्ता के द्वारा क्रय के द्वारा वह निर्धारित किया गया हो। जैसे, उपहार या किसी वसियत के द्वारा बिना किसी निर्धारण की वस्तु या सेवा प्राप्त करना व्यक्ति को उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं रखता है। तीसरी, वस्तु या सेवा की खरीद उपभोक्ता द्वारा प्रत्यक्ष उपभोग के लिए आवष्यक है। जैसे कि किसी व्यक्ति द्वारा किसी वस्तु को पुनः बेचने या किसी वाणिज्यिक उद्देश्य, जैसे पुनर्निर्माण या पुनर्चक्रण आदि के उद्देश्य से किसी निश्चित वस्तु या सेवा खरीदने से उसे उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा।3

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 ने व्यक्तिगत तथा किसी खास व्यक्ति विशेष के परिप्रेक्ष्य में उपभोक्ता के बारे में एक विशेष अवधारणा का स्पष्टीकरण करता है। इस अधिनियम के धारा 2(1) (घ) के अनुसार, उपभोक्ता वह व्यक्ति है जो वस्तु या सेवा को अपने लिए निर्धारित फायदे या उपभोग के लिए खरीदता है या किरए पर लेता है या प्राप्त करता है जिसका मूल्य या तो अदा कर दिया गया हो या अदा करने का वचन दिया हो या आंशिक भुगतान या किसी अन्य पद्धति के तहत भुगतान किया गया हो। यह अधिनियम उनलोगों को स्पष्टतः उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं रखता है, जो वस्तु या सेवाओं की प्राप्ति किसी वाणिज्यिक उद्देश्य के लिए करते हैं। वाणिज्यिक उद्देश्य के तहत उसे भी शामिल नहीं किया गया है, यदि वह व्यक्ति कोई वस्तु खरीदे और स्वरोजगार द्वारा जीविकोपार्जन हेतु उसकी सेवा खुद ले। उल्लेखनीय है कि भारत की जनसंख्या का एक बड़ा भाग छोटे-छोटे दुकानों जैसे खुदरा विक्रेता, विनिर्माण इकाई आदि द्वारा स्वरोजगार के तहत जीविकोपार्जन करते हैं इसके लिए वे बड़े-बड़े व्यापारियों या उत्पादकों से वस्तु या सेवाएँ खरीदते हैं। लेकिन उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत इस तरह के व्यवसाय को शामिल नहीं करने से बड़ी संख्या में लोगों को बाजार के सिद्धांतहीन एवं लालची बड़े-बड़े होने के उद्देश्य में बाधा उत्पन्न करता है।

वस्तु एवं सेवाओं की अवधारणा

साधारणतः वस्तु से तात्पर्य पूर्ण रूप से गतिमान उत्पाद है, जो व्यक्तियों द्वारा उपभोग के योग्य हो। जबकि कानूनी शब्दों में, वस्तु से अभिप्राय प्रत्येक प्रकार के गतिमान उत्पाद या संपत्ति से हैं जो बेचा जा सके। इस प्रकार, ऐसी वस्तु जैसे स्टॉक, शेयर, कॉपीराइट, ट्रेडमार्क पेटेंट एवं बिक्री आदि सभी वस्तु है। बिक्री कर आयुक्त बनाम मध्य प्रर्देां विद्युत बोर्ड के प्रसिद्ध वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि गतिमान गुण वाली वस्तु का अर्थ संकुचित अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि बिजली स्पश्ट दिखाई देने वाली चीज नहीं है, इसे न ही छुआ जा सकता है और इसे न ही किताब या लकड़ी की तरह इधर से उधर घुमाया जा सकता है, इसे गतिमान संपत्ति की तरह रोका नहीं जा सकता जबकि ऐसी संपत्ति के अन्य सारे गुण उसमें है। अन्य गतिमान संपत्ति की तरह इसे भी प्रेशित किया जाता है, भेजा जाता है, प्रदान किया जाता है, संग्रह किया जाता है, नियंत्रित किया जा सकता है, इसलिए इसे वस्तु के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है।4 इस प्रकार इसी तरह के तर्क के आधार पर पानी, हवा, गैस एवं वाश्प भी वस्तु की अवधारणा में समाहित हैं।

वस्तु की तरह सेवा को भी साधारण तथा तकनीकी शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है। साधारणतः किसी भी व्यवसायियों द्वारा पैसों के निर्धारण के लिए निर्धारित विशेष प्रकार के प्रावधान ही सेवा है। तकनीकी दृष्टि से उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के धारा 2(1) (ण) के अनुसार सेवा से तात्पर्य वह सेवा है जो बैकिंग, वित्तीय संस्थान, बीमा, परिवहन, विनिर्माण, विद्युत या अन्य ऊर्जा की सप्लाई, बेडिग एवं ठहराव, आवास निर्माण, मनोरंजन, समाचार या अन्य सूचना प्रेशित करना आदि के उपयोग करने वालों के लिए उपलब हो। अधिनियम के अंतर्गत उन सेवाओं को सेवा के अन्तर्गत नहीं रखा जाता जो मुफ्त सेवा या व्यक्तिगत सेवा किसी शर्त के अधीन मिलती हो।

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