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ISSN 2349-672X

बिहार में सामाजिक परिवर्तन के बदलते आयाम और कर्पूरी ठाकुरः एक अध्ययन

Volume: 3 Issue: 2021-01-01

 

डॉ० प्रियंका कुमारी

सहायक प्राध्यापिका (गेस्ट फैकल्टी) एम.एस.के.बी. कॉलेज, मुजफ्फरपुर।, बी.आर.ए. बिहार विश्वविद्यालय, मु

वंचन, विभेद और अन्याय सभी समाजों में अलग-अलग मात्रा में व्याप्त हैं। अन्याय से पीड़ित, निराश, क्रुद्ध और आक्रमक लोगों में विद्रोह की प्रवृत्ति रहती है। इस तरह सामाजिक परिवर्तन पैदा होते हैं। लेकिन हर समाज में अनिवार्यतः सामाजिक परिवर्तन खड़े नहीं हो पाते। सामाजिक परिवर्तन सिर्फ तब खड़े होते हैं जब लोग इन असमानताओं और अन्यायों के प्रति सजग होते हैं और उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए संघर्ष करते हैं। कहना न होगा कि सामाजिक परिवर्तन के लिए उपजाऊ जमीन तब उपलब्ध होती है जब प्रतिकूल परिस्थितियों मे जी रहे लोगों को वर्तमान समाज व्यवस्था का बेहतर विकल्प दिखने लगता है। तब मौजूदा संस्थाओं के औचित्य पर ही प्रश्न उठ जाता है और इस बदलाव की संभाव्यता दिख जाती है।

1950 के दशक में जमींदारी समाप्त होने के बाद, कृषक भू-स्वामियों का उदय हुआ और 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध तक उन्होंने अपने पाँव मजबूती से जमा किए थे। इस वर्ग में निचली जातियों का बाहुल्य था, जो अपनी हैसियत के अनुसार अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च कर रही थी। किसानों, पिछड़ी जातियों तथा निर्धनों के लिए नेहरू का केन्द्रीय वामावर्ती वरदान एक ढोंग साबित हो चुका था। निचले वर्ग ने स्वतंत्रता के बाद समानता और समृद्धि के लिए बीस साल तक इंतजार किया था। बिहार में इस अवधि के दौरान लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) ऐसे ही एक बड़े शक्तिपुंज (पावर हाउस) के रूप में ऊपर उठी।

भारतीय समाज के बारे में समाजवादियों की परख में सामाजिक व्यवस्था जातिवाद से ओतप्रोत दिखी और भूमि का असमान वितरण दमन और उत्पीड़न की मूल जड़ लगा। इसी से सोशलिस्टों ने जमीन जोतने वालों की हो और जातिप्रथा का उन्मूलन हो जैसे नारों का प्रचार किया। लेकिन अपनी ठोस कार्य योजना के मामले में वे कोई व्यवस्थागत पहल करने में चूक गए, जिसकी मदद से भूमि सुधार के ढांचे में सामाजिक न्याय को कार्य रूप दिया जा सकता था। वे लोग नारेबाजी करने में अच्छे थे, लेकिन इनके द्वारा चलाए गए भूमि सुधार आंदोलन मूल रूप से सरकार और प्रशासनिक मशीनरी के खिलाफ ही इंगित रहे, इसमें उनकी एक आंख चुनावों पर लगी रही, जबकि सीधा निशाना जमींदारों पर होना चाहिए था, ऐसा नहीं हुआ। सोशलिस्टों की ओर से चलाए गए संघर्षों में वैसे सामाजिक और आर्थिक मसलों पर संयुक्त कार्यक्रम का एक प्रयास तो किया गया, लेकिन इसमें वे खेतिहर मजदूरों और किसानों को उस रूप में आंदोलित करने में असफल रहे कि ये जोतने वालों के लिए जमीन के बाबत होने वाले संघर्ष में प्रभावशाली ताकत बन जाएं। इनका वोट बैंक मुख्य रूप से पिछड़ी जातियों और मध्यवर्ग के भरोस व्यवस्थित था। इसीलिए, भूमिहीनों और गरीब किसानों के मुद्दे इनकी मुख्य कार्ययोजना में शामिल नहीं हुए।

लोहिया ने स्वतंत्रता और जमींदारी उन्मूलन के बाद पिछड़ी जातियों के उदीयमान खुशहाल तबकों के राजनीतिक आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने का मार्ग प्रशस्त किया। लोहिया का यह देसी समाजवादी आंदोलन जनेऊ आंदोलन तथा त्रिवेणी आंदोलन का स्वातंन्न्योत्तर स्थितियों में परिवर्धित संस्करण था। कहना न होगा कि 1967 के दौर में पिछड़ी जातियों का यह सामाजिक परिवर्तन सत्ता के गलियारों में जा पहुँचा था।

उल्लेखनीय है कि डॉ. लोहिया ने ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ का नारा दिया। ‘जातियों में बराबरी तभी कायम हो सकती है, जब जातियों का नाश हो, और जातियों का नाश तभी हो सकता है, जब दबी हुई जातियों को विशेष और गैर-बराबर अवसर दिया जाए। इसलिए साठ सैकड़ा संरक्षण का सिद्धांत मानना होगा। चाहे लायक-नालायक, औरत, शूद्र, हरिजन, पिछड़े वर्ग, आदिवासी और जुलाहा इत्यादि मुसलमानों को साठ सैकड़ा संरक्षण देना होगा। उन्होंने विशेष अवसर के इस सिद्धांत को, सौ में साठ के नारे को पहले अपने संगठन में ही लागू करने की कोशिष की। 1960 में उन्होंने अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भूपेन्द्रनारायण मंडल को इस उद्देश्य से पार्टी की राष्ट्रीय समिति से लेकर क्षेत्रीय समिति तक को भंग करने का प्रस्ताव लेने का सुझाव दिया था। लेकिन श्री मंडल ने इस प्रस्ताव को आने नहीं दिया। तब डॉ. लोहिया ने कहा था, ‘एक शूद्र के द्वारा शूदों के स्वार्थ की हत्या कर दी गई।’ 1964 में सोपा और प्रसोपा के विलय के बाद संसोपा की जो तदर्थ समिति बनी उसमें भी ‘सौ में साठ’ के सिद्धांत के अमल में लाने का प्रयास दिखाई देता है। पिछड़ों की पार्टी के रूप में संसोपा की पहचान बनने का एक महत्वपूर्ण कारण उसकी संगठनात्मक बुनावट भी थी, जो अन्य पार्टियों में दिखाई नहीं पड़ती थी।

सामाजिक उत्पीड़न के प्रश्न को नस्लीय, राष्ट्रीय, यौन और अन्य उत्पीड़नों के साथ जोड़कर उन्होंने सप्तक्रांति का एक सार्विक सिद्धांत विकसित किया। इन सबके साथ ‘वोट, फावड़ा और जेल’ की आन्दोलनात्मक कार्यनीति थी। ‘गैर-कांग्रेसवाद’ के तहत कांग्रेस विरोधी मतों के विभाजन को रोकने की कोशिश हुई।

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